रेखा की गर्म झोपड़ी में राज़ खुले






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Short Teaser बरसात की उस रात हवा में नमी थी ,और अमृता के दिल में बेचैनी।बाहर कोई था – या उसका मन ही कुछ सुनने की चाह में धोखा खा रहा था ?

Character Detail अमृता (28):साँवली ,भरे गाल ,बड़ी आँखें ,और चेहरे पर वो मासूमियत जो अकेलेपन में धीरे – धीरे तड़प में बदल रही थी।पति बाहर नौकरी पर ,महीनों से घर खाली।राजीव (32):पड़ोसी किसान ,चौड़ी छाती ,मेहनत से तपा रंग।नजरें सीधी ,पर शब्दों में अनकही गर्माहट।गांव का माहौल :खुला आकाश ,पगडंडी से गुजरती ठंडी हवा ,दूर कहीं से आती ढोलक की मद्धम थाप – और बीच में अकेला घर।

Plot / Setting रात गहरी हो चुकी थी।बाहर बारिश थम चुकी थी ,मगर छत से टपकती बूंदें अब भी खिड़की पर बज रही थीं।अमृता पलंग पर करवटें बदलती रही – कभी तकिए में मुँह छुपाकर ,कभी खिड़की की ओर देखते हुए।तभी ,दरवाज़े पर धीमी सी दस्तक हुई।पहले लगा ,शायद हवा का झोंका होगा।पर फिर वही आवाज़ दोहराई दी – हल्की ,पर साफ़।" अमृता …दरवाज़ा खोलो।"

उसके हाथ काँप उठे।गले में जैसे कोई गाँठ सी पड़ गई।बाहर की ओर देखा तो ओस में भीगी खिड़की के पार एक धुंधली आकृति खड़ी थी – राजीव।

" इतनी रात को ?" उसने खुद से बुदबुदाया।पर पाँव अपने आप दरवाज़े की ओर बढ़ने लगे।

राजीव की आवाज़ में कुछ था – ना डराने वाला ,ना पूरी तरह सुकून देने वाला।बस कुछ ऐसा जो दिल की धड़कन को तेज़ कर दे।" पानी बहुत बढ़ गया था नाले में ," उसने कहा , " सोचा देख लूँ कि तुम अकेली हो …सब ठीक तो है ?"

अमृता ने दरवाज़ा थोड़ा खोला ,बस इतना कि आधी रोशनी अंदर आई।उसके गीले बालों से पानी की बूँदें नीचे गिर रही थीं।बारिश की गंध ,मिट्टी की खुशबू ,और उसके साँसों की गर्माहट सब एक साथ कमरे में भर गए।

" मैं ठीक हूँ ," उसने कहा ,पर आवाज़ धीमी पड़ गई।राजीव की नजरें उसके चेहरे से सरक कर उसके हाथों पर ठहर गईं – ठंड से काँपते हुए ,पर छिपे भावों से गर्म।

" कपड़े बदल लो …ठंड लग जाएगी ," अमृता ने कहा।राजीव मुस्कुराया -" अगर अंदर आने की इजाज़त दो तो बदल लूँ।"

उस पल में दोनों के बीच हवा भारी हो गई।अमृता के मन में डर और कुछ और – एक अनजाना रोमांच।उसने पलभर को सोचा …फिर सिर झुकाकर दरवाज़ा थोड़ा और खोल दिया।

राजीव अंदर आया ,भीगी कमीज़ उतारी।अमृता का दिल तेज़ धड़कने लगा।उसने दूसरी ओर मुँह कर लिया ,पर उसकी नजरें पीछे से महसूस हो रही थीं।बाहर बिजली कड़की – कमरे में क्षणभर को उजाला हुआ – दोनों की परछाइयाँ एक – दूसरे के करीब दिखीं।

" धन्यवाद ," उसने कहा , " अगर मैं परेशान कर रहा हूँ तो …" " नहीं ," अमृता ने जल्दी से जवाब दिया , " बस …रात है ,इसलिए …" राजीव हौले से हँसा -" रात ही तो वो वक्त है जब बातें अधूरी नहीं रहनी चाहिए।"

उसने खिड़की की ओर देखा ,जहाँ से ठंडी हवा भीतर आ रही थी।पर्दा फड़फड़ा रहा था ,जैसे कोई रहस्य खुलने को हो।अमृता ने धीरे से कहा -" खिड़की बंद कर दो ,हवा बहुत तेज़ है।" राजीव खिड़की के पास गया ,पर उसने बंद नहीं की।पीछे मुड़कर बोला -" अगर बंद कर दी …तो हवा नहीं ,हम दोनों भी रुक जाएँगे।"

अमृता ने नजरें झुका लीं।कमरे में अब सिर्फ उनके साँसों की आवाज़ थी।दिल धड़क रहा था ,पर जुबान खामोश।

Twist / Emotional उसने खिड़की की ओर देखा – पर्दा आधा खुला था।बाहर अँधेरा ,भीतर कुछ अनकहा।राजीव ने धीरे से कहा -" कभी – कभी डर सबसे प्यारा बहाना होता है …पास आने का।" अमृता ने पहली बार उसकी आँखों में देखा – डर अब वहाँ नहीं था।बस सवाल था …कितनी दूर तक जाना है ?

और तभी …बाहर से कोई दूसरी दस्तक सुनाई दी।

" वो दूसरी दस्तक किसकी थी ?"

दरवाज़े पर आई दूसरी दस्तक ने अमृता का दिल थाम दिया।पल भर पहले तक जो माहौल धीमी साँसों और नज़रों की ख़ामोशी से भरा था ,अब अचानक सिहरन में बदल गया।राजीव की आँखों में भी वही सवाल था – " अब कौन ?" दोनों कुछ क्षण यूँ ही खड़े रहे ,जैसे हवा तक थम गई हो।अमृता ने धीरे से फुसफुसाया , " कोई सुन तो नहीं रहा था न हमें ?" राजीव ने सिर हिलाया , " शायद हवा का झोंका हो …या कोई जानवर।" पर उस दस्तक में एक लय थी – जैसे किसी ने सच में बुलाया हो।

अमृता के पाँव अपने – आप दरवाज़े की ओर बढ़े।राजीव ने उसका हाथ थाम लिया।उसकी हथेलियाँ अब भी बारिश की नमी से ठंडी थीं ,लेकिन पकड़ में एक अजीब गर्माहट थी।" रुको ," उसने कहा , " पहले मैं देखता हूँ।" दरवाज़े की झिर्री से उसने बाहर झाँका – कोई नहीं।बस दीवार पर झिलमिलाती लालटेन की लौ ,और उससे बनती उनकी परछाईं।राजीव ने दरवाज़ा थोड़ा खोला ,हवा का झोंका अंदर आया और उसके साथ मिट्टी की गंध ,भीगी घास ,और कहीं दूर से आती ढोलक की धीमी थाप।

अमृता की आँखें अनायास बंद हो गईं।उस पल में उसे अपने भीतर कुछ काँपता सा महसूस हुआ – डर नहीं ,कोई अजीब – सा खिंचाव।राजीव ने दरवाज़ा बंद किया और बोला , " कोई नहीं था …पर अब तुम सच में डर रही हो।" अमृता मुस्कुराई – " डर तो अब नहीं ,पर ये रात बहुत लंबी लग रही है।"

राजीव ने पास आकर कहा , " तो चलो इसे छोटा कर देते हैं।" उसके शब्दों में मज़ाक भी था और कोई छिपी चाह भी।अमृता ने हल्का – सा ठहाका लगाया ,लेकिन उसकी आँखों में बेचैनी तैर रही थी।उसने दीवार से टिककर कहा , " जब से तुम आए हो ,कुछ अजीब हो गया है …जैसे घर भी साँस ले रहा है।" राजीव ने जवाब दिया , " शायद इसलिए कि तुम पहली बार अकेली नहीं हो।"

बिजली की गड़गड़ाहट से कमरे की खिड़कियाँ काँपीं।दोनों चौंक गए ,फिर अनजाने में मुस्कुरा उठे।अमृता ने कहा , " खिड़की अब भी खुली है ,जाओ बंद कर दो।" राजीव खिड़की के पास गया ,मगर फिर वही अटका हुआ पर्दा हवा में फड़फड़ाने लगा – वही पर्दा जिसने कुछ देर पहले दोनों के चेहरों को आधा – अधूरा ढका था।" हर बार जब इसे देखता हूँ ," उसने कहा , " लगता है जैसे ये भी कुछ कहना चाहता है।" अमृता ने धीरे से जवाब दिया , " कहता नहीं …छिपाता है।"

उसकी आवाज़ में हल्की काँप थी।राजीव ने उसकी ओर देखा – " और तुम क्या छिपा रही हो ,अमृता ?" वो कुछ नहीं बोली ,बस नज़रें झुका लीं।उसकी उँगलियाँ आपस में उलझ गईं ,जैसे कोई जवाब ढूँढ रही हों।फिर उसने धीमे स्वर में कहा , " कभी – कभी डर और चाह में फर्क नहीं समझ आता।" राजीव ने मुस्कुराकर कहा , " शायद दोनों एक ही चीज़ हैं …बस वक्त बदलता है।"

बाहर फिर से वही दस्तक गूँजी – तीसरी बार।इस बार दोनों ने एक – दूसरे को देखा ,और कमरे की हवा जैसे थम गई।राजीव धीरे – धीरे आगे बढ़ा ,अमृता उसके पीछे।दरवाज़े के पार अँधेरा था ,मगर किसी की परछाई साफ़ दिखाई दे रही थी – इस बार पहले से ज़्यादा नज़दीक।राजीव ने हाथ बढ़ाया ,दरवाज़े का कुंडा घुमाया …

कुंडा खुला ,पर सामने कोई नहीं था।सिर्फ दरवाज़े के पास ज़मीन पर पड़ा एक भीगा हुआ कागज़ – जिस पर लिखा था :" वो लौट आया है।"

अमृता की साँसें थम गईं।उसने कागज़ उठाया – कागज़ पर वही लिखावट थी जो उसने अपने पति की पुरानी चिट्ठियों में देखी थी।

अमृता के हाथ में भीगा हुआ कागज़ अब काँप रहा था।लालटेन की लौ परछाइयों को दीवार पर नचा रही थी – राजीव की चौड़ी परछाई ,और उसके पीछे अमृता की दुबकी हुई आकृति।राजीव ने धीरे से पूछा , " किसकी लिखावट है ये ?" अमृता के गले से बस फुसफुसाहट निकली , " मेरे पति की।"

कमरे में कुछ पल के लिए सन्नाटा छा गया।केवल छत से टपकती बूंदों की टिक – टिक गूंज रही थी।राजीव ने कागज़ को अपने हाथ में लिया ,किनारों को देखा -" ये तो बहुत पुराना लग रहा है पर गीला अभी हुआ है।" अमृता ने थरथराते स्वर में कहा , " वो महीनों से गया है ,कोई खबर नहीं फिर ये कैसे ?"

हवा का झोंका आया – पर्दा फिर फड़फड़ाया – और मेज़ पर रखी दीया की लौ बुझ गई।अंधेरे में राजीव ने धीरे से अमृता का हाथ थाम लिया।" घबराओ मत ,मैं हूँ न।" उसके स्पर्श में भरोसा था ,पर वही भरोसा अमृता के भीतर एक नई उलझन जगाने लगा।

" तुम हो तो सब ठीक लगता है ," उसने धीरे से कहा , " पर डर भी उसी से लगता है कि लोग क्या कहेंगे।" राजीव ने हल्की हँसी में कहा , " गाँव की जुबान कभी रुकती नहीं ,पर सच जानने वाले बस दो ही होते हैं।" उसकी आवाज़ में एक गहराई थी जो शब्दों से ज़्यादा दिल तक पहुंच रही थी।

अमृता ने कागज़ को ध्यान से देखा।पन्ने के नीचे एक छोटा सा निशान था – उसके पति की घड़ी का नंबर।" शायद वो यहाँ था ," उसने कहा।राजीव ने गंभीर स्वर में पूछा , " तो क्या वो अब भी यहीं है ?" अमृता ने धीरे से सिर हिलाया , " अगर है तो देख रहा होगा …हम दोनों को।"

बाहर फिर हल्की बिजली कड़की।इस बार रोशनी के झटके से खिड़की के पास किसी परछाई का धुंधला अक्स दिखा।अमृता चीख़ पड़ी।राजीव दौड़कर खिड़की तक गया ,पर वहाँ कोई नहीं था – बस गीली ज़मीन पर पैरों के निशान।

" ये तो मानव के ही पैर जैसे हैं " राजीव ने धीरे से कहा।अमृता काँप उठी – " वो मुझे देख रहा है राजीव – मुझे महसूस हो रहा है।"

राजीव ने पर्दा जोर से खींच दिया और अमृता को पास कर लिया।वो अब उसकी बाँहों में थी ,सिर उसके कंधे पर।बाहर तूफ़ान था ,अंदर सिर्फ़ साँसों की धड़क।उसने धीरे से कहा , " तुम अब अकेली नहीं हो जब तक मैं यहाँ हूँ।"

वो पल अनजाना था – ना तो पूरी मोहब्बत ,ना सिर्फ़ डर।अमृता ने पहली बार महसूस किया कि अंदर का सन्नाटा किसी की मौजूदगी से भी ज्यादा ज़ोर से गूंज रहा है।राजीव ने धीरे से पूछा , " अगर वो वापस आ गया तो क्या करोगी ?" उसकी आँखों में एक पल के लिए आँसू चमके ,फिर कहा , " शायद फिर से सब बदल जाए …पर ये जो आज है ,वो भी तो सच है।"

राजीव ने कुछ कहना चाहा पर बोल न पाया।कमरे के बाहर अब पैरों की हल्की आहट थी – धीमी पर स्पष्ट।दोनों ने एक साथ दरवाज़े की ओर देखा।अमृता की धड़कनें गूँज रही थीं।राजीव ने फुसफुसाया , " जो भी है ,अब सच सामने आएगा।"

दरवाज़ा धीरे – धीरे चरमराया और अंधेरे से कोई परछाई भीतर आई – लालटेन की रोशनी उसके चेहरे तक पहुँच ते ही अमृता जड़ हो गई।

अमृता की उँगलियाँ उस भीगे कागज़ पर ठिठक गईं।बारिश की बूंदें जैसे अक्षरों पर गिरकर उन्हें और धुँधला कर रही थीं।" वो लौट आया है।" – बस यही चार शब्द ,मगर उनके पीछे हजारों सवाल।उसका दिल जोर से धड़कने लगा।पीछे खड़ा राजीव भी उस कागज़ को टकटकी लगाए देख रहा था।

" किसने लिखा ये ?" उसने धीरे से पूछा।अमृता ने काँपती आवाज़ में कहा , " ये …ये लिखावट तो सुरेश की है।" " तुम्हारे पति की ?" राजीव ने अचरज से कहा।अमृता ने सिर हिलाया।" हाँ …लेकिन वो तो तीन महीने से बाहर है।ये कैसे हो सकता है ?"

कमरे में खामोशी फैल गई।हवा अब भी भीगी थी ,मगर उसमें एक सिहरन थी – जैसे किसी अदृश्य निगाह ने सब देख लिया हो।राजीव ने खिड़की बंद की ,और धीरे से बोला , " शायद कोई मज़ाक कर रहा हो।" अमृता ने जवाब दिया , " सुरेश मज़ाक नहीं करता …और उसकी लिखावट मैं पहचानती हूँ।"

उसने कागज़ मेज़ पर रखा और पास वाली कुर्सी पर बैठ गई।उसकी साँसें भारी थीं ,आँखें कहीं दूर टिकी थीं।राजीव कुछ पल उसके सामने खड़ा रहा ,फिर बोला – " तुम्हें ठंड लग रही है ,मैं चूल्हा जला देता हूँ।" अमृता ने सिर उठाया।" धन्यवाद ," उसने धीमे से कहा।

चूल्हे की लौ जलते ही कमरे में हल्की गर्माहट फैल गई।राजीव झुककर लकड़ियाँ सुलगा रहा था।अमृता ने उसकी तरफ देखा – उस झिलमिलाती रोशनी में उसका चेहरा कुछ और ही लग रहा था ,जैसे भीतर का कोई सवाल उसके चेहरे पर उतर आया हो।वो धीरे से बोली , " राजीव ,अगर सच में सुरेश लौट आया है …तो वो दरवाज़े पर क्यों नहीं आया ?" राजीव ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा , " शायद कुछ कहना चाहता हो ,पर सीधे नहीं कह पा रहा।"

" या शायद कुछ देख लिया हो …" अमृता की आवाज़ में डर और अपराधबोध का अजीब मिश्रण था।राजीव पलभर को खामोश रहा ,फिर उसने हाथ बढ़ाकर कहा , " अमृता ,कुछ भी हो …मैं यहाँ हूँ।"

उसकी हथेली ने जैसे एक पल को सारी उलझनें रोक दीं।अमृता ने उसकी ओर देखा – उसकी आँखों में भरोसे के साथ कुछ और भी था ,कुछ ऐसा जिसे नज़रअंदाज़ करना मुश्किल था।" तुम हमेशा ऐसे ही बोलते हो ," उसने हल्की मुस्कान के साथ कहा , " जैसे हर डर का जवाब तुम्हारे पास है।"

राजीव ने धीमी हँसी में कहा , " शायद इसलिए कि तुम्हारे डर मुझे अपने जैसे लगते हैं।"

बाहर बिजली फिर से कड़की ,और उसी के साथ हवा का तेज़ झोंका अंदर घुस आया।कागज़ उड़कर ज़मीन पर गिरा – और उसमें से एक छोटा – सा फोटो निकल आया।अमृता झट से उठी।फोटो ज़मीन पर उल्टा पड़ा था।उसने पलटकर देखा – वो उसकी और सुरेश की शादी की तस्वीर थी।लेकिन उस पर किसी ने कोयले से दो शब्द लिखे थे – " गुनाह लौटेगा।"

राजीव ने वो तस्वीर देखी और बोला , " अब ये मज़ाक नहीं लग रहा।" अमृता की आँखें भर आईं।" कहीं …कहीं सुरेश सच में आ गया तो ?" राजीव ने उसके करीब आकर कहा , " अगर वो आया भी है ,तो उसे बताने दो कि तुम अकेली नहीं हो।"

उसकी ये बात सुनकर अमृता का दिल जैसे रुक गया।हवा में कुछ अजीब थरथराहट थी।अमृता ने नज़रें झुका लीं ,पर मन में सवालों का शोर था – क्या सच में वो अकेली नहीं है …या किसी और गलती के रास्ते पर बढ़ रही है ?

रात आधी से ज़्यादा बीत चुकी थी।चूल्हे की आँच अब धीमी पड़ चुकी थी ,और कमरे में सिर्फ लालटेन की हल्की रोशनी झिलमिला रही थी।अमृता अब भी उस तस्वीर को देख रही थी जिस पर लिखा था – " गुनाह लौटेगा।" हर बार जब वो शब्द पढ़ती ,उसका दिल किसी अनजाने डर से सिहर उठता।

राजीव ने धीरे से कहा , " अमृता ,तुम्हें लग रहा है कोई हमें देख रहा है ?" वो चौंककर उसकी तरफ़ मुड़ी , " कभी – कभी लगता है जैसे कोई पास ही खड़ा हो।" राजीव ने दीवार की ओर इशारा किया – परछाई फिर से हिली।दोनों ने एक – दूसरे की ओर देखा।इस बार नज़रें ज़्यादा देर तक टिकी रहीं।

अमृता ने धीमी आवाज़ में कहा , " शायद अब मुझे सो जाना चाहिए।" राजीव ने जवाब दिया , " और अगर वो दस्तक फिर आई तो ?" उसने कुछ नहीं कहा ,बस खिड़की की ओर बढ़ गई।हवा के साथ परदे हल्के से हिल रहे थे ,जैसे कोई सांस ले रहा हो।

राजीव उसके पीछे आया और खिड़की बंद कर दी।उस पल में उनके बीच कुछ बदल गया – ना कोई शब्द ,ना कोई आवाज़ ,पर माहौल में अनकही गर्माहट थी।अमृता ने पहली बार खुलकर उसकी ओर देखा।" तुम्हें नहीं लगता …हम कुछ ज़्यादा करीब आ गए हैं ?" राजीव ने मुस्कुराकर कहा , " शायद डर इंसानों को करीब लाता है।"

बाहर कहीं उल्लू की आवाज़ गूँजी ,और वहीँ दूर खेतों की ओर से किसी के कदमों की आहट सुनाई दी।राजीव ने झरोखे से झाँका – अँधेरे में कोई चलता दिखा ,लेकिन चेहरे का पता नहीं चला।" किसी का साया है ," उसने कहा।अमृता पास आ गई , " क्या वो …सुरेश हो सकता है ?" राजीव ने उसकी ओर देखा -" अगर वो है ,तो शायद अब सब साफ़ हो जाएगा।"

अमृता की आँखों में आँसू थे।" काश उसने पहले ही बता दिया होता कि वो लौट रहा है।" राजीव ने उसके आँसू ते हुए कहा , " कभी – कभी लौटने से पहले इंसान देखना चाहता है कि उसकी जगह अब भी बाकी है या नहीं।" उसने हौले से सिर झुका लिया।उस स्पर्श में सहारा भी था और अपराधबोध भी।

बिजली एक बार फिर कड़की।दरवाज़ा खुद – ब – खुद हिला और बाहर से किसी के कदमों की आहट तेज़ होती गई।दोनों ने सांसें रोक लीं।दस्तक इस बार ज़ोर से हुई – तीन बार लगातार।

राजीव ने अमृता की ओर देखा , " अब क्या करें ?" अमृता बोली , " अगर सच में वो है …तो दरवाज़ा मैं खोलूँगी।" उसने कांपते हाथों से कुंडा पकड़ा।दरवाज़ा धीरे – धीरे खुला – सामने वही साया खड़ा था।बारिश की बूँदें उसके बालों से गिर रही थीं ,पर चेहरा अंधेरे में छिपा था।

राजीव ने टॉर्च उठाई ,रोशनी उस चेहरे पर पड़ी – और अमृता की चीख निकलते – निकलते रह गई।

सामने सुरेश नहीं ,कोई और था – एक बूढ़ा आदमी ,गाँव का चौकीदार।वो बोला , " बिटिया ,माफ़ करना डराया …तालाब के पास कोई अजनबी घूम रहा था ,सो खबर देने आया हूँ।"

राजीव ने राहत की सांस ली।अमृता की आँखें अब भी चौकीदार के पीछे अँधेरे में कुछ ढूँढ रही थीं – क्या वो सच में अजनबी था ?या कोई और …जो अब भी देख रहा था ?

सुबह की हल्की धूप खिड़की से भीतर आ रही थी ,पर अमृता के मन का अँधेरा अब भी वैसा ही था।रात की सारी बातें बार – बार उसके दिमाग़ में घूम रही थीं – भीगा कागज़ ,परछाई ,चौकीदार की चेतावनी और वो रहस्यमयी आहट।राजीव अब भी जाग रहा था ,आँखें दरवाज़े पर टिकी हुईं।

" अमृता ," उसने कहा , " अब हमें सच जानना ही होगा।" अमृता ने धीरे से सिर हिलाया।" हाँ ,पर अगर सच वही निकला जो मैं सोच रही हूँ …तो सब कुछ टूट जाएगा।"

दोनों बाहर निकले।सुबह की ठंडी हवा में मिट्टी की खुशबू थी।तालाब की ओर जाते पगडंडे पर किसी के जूतों के निशान साफ़ दिख रहे थे – भारी और गहरे ,जैसे कोई देर रात वहाँ खड़ा रहा हो।राजीव झुककर उन्हें देख रहा था।" कदमों के निशान पुराने नहीं हैं ,ये तो रात के हैं।" अमृता की सांसें तेज़ हो गईं।उसने काँपती आवाज़ में कहा , " क्या वो …सुरेश हो सकता है ?"

अचानक पीछे से किसी ने पुकारा -" अमृता !" दोनों ने मुड़कर देखा – वो सुरेश था।धूप में खड़ा ,थका हुआ ,गीले कपड़ों में।उसकी आँखों में नींद नहीं ,सवाल थे।

अमृता वहीं ठिठक गई।राजीव के चेहरे का रंग उड़ गया।सुरेश ने धीरे – धीरे पास आते हुए कहा , " सोचा नहीं था …इतनी जल्दी लौटना पड़ेगा।पर कुछ तो था जिसने मुझे वापस खींच लिया।" अमृता के होंठ सूख गए।" तुम …तुम कब आए ?" " कल रात ," उसने कहा , " पर तुम्हारे घर के बाहर किसी और की परछाई थी।"

राजीव ने सीधा कहा , " वो मैं था ,सुरेश।अमृता अकेली थी ,बारिश में डरी हुई थी।मैं बस मदद करने आया था।" सुरेश ने उसकी तरफ देखा ,फिर अमृता की ओर -" मदद …या कुछ और ?"

कमरे में लौटते ही माहौल भारी हो गया।अमृता ने धीमे स्वर में कहा , " सुरेश ,तुम गलत समझ रहे हो।" वो बोला , " गलतफहमी तब होती अगर मैंने अपनी आँखों से न देखा होता।" उसकी आवाज़ में ग़ुस्सा नहीं ,बल्कि टूटा हुआ यक़ीन था।

राजीव आगे बढ़ा , " सुरेश ,जो तुम सोच रहे हो ,वैसा कुछ नहीं है।बस डर था ,रात थी …और हम दोनों अकेले थे।" सुरेश ने कटाक्ष भरी नज़र से कहा , " अकेलापन अक्सर गुनाह से पहले आता है ,राजीव।"

अमृता के आँखों से आँसू गिरने लगे।" गुनाह अगर है भी ,तो वो मेरे मन में था …हकीकत में नहीं।" उसकी आवाज़ काँप रही थी ,पर हर शब्द सच्चा था।राजीव ने उसकी ओर देखा – वो समझ गया कि अब कुछ भी कहना बेकार है।

सुरेश ने चुपचाप दरवाज़े की ओर कदम बढ़ाए।" अमृता ,मैं जा रहा हूँ।जब मन साफ़ हो जाए ,तब लौट आना।" वो बाहर चला गया।बारिश फिर से शुरू हो चुकी थी।

अमृता वहीं खड़ी रही – भीतर चूल्हे की राख ठंडी हो चुकी थी।राजीव ने कहा , " शायद अब मुझे भी जाना चाहिए।" अमृता ने सिर झुका लिया।" हाँ …कभी – कभी पास आने की कीमत बहुत महँगी होती है।"

राजीव बाहर निकला।हवा में अब भी वही गंध थी – बारिश ,मिट्टी और अधूरी बातें।अमृता ने खिड़की की ओर देखा ,जहाँ से वो पहली दस्तक आई थी।अब वहाँ सन्नाटा था ,पर उसके दिल में वो दस्तक हमेशा के लिए रह गई थी – एक याद बनकर ,एक गुनाह की गूंज बनकर।

Epilogue :कहते हैं ,उस रात के बाद अमृता ने वो घर छोड़ दिया।गाँव में कोई नहीं जानता कि वो कहाँ गई ,पर लोग अब भी उस घर को " दस्तक वाला घर " कहते हैं – जहाँ एक रात किसी ने खिड़की पर हल्की थाप दी थी …और सब कुछ बदल गया था।

 


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